शास्त्रों के अध्ययन से सम्पूर्ण की सम्पूर्णतया जानकारी सम्भव नहीं


शास्त्रों के अध्ययन से सम्पूर्ण की
सम्पूर्णतया जानकारी सम्भव नहीं
        बोलिये परम प्रभु परमेश्वर की जय ! हम आप बन्धुजनों से एक बार नहीं,बार-बार कह रहे है कहते रहेंगे । हमारे पास और है क्या ? सिवाय सत्य के ज्ञान  के सिवाय ईश्वर-परमेश्वर की जानकारी प्राप्ति के दर्शन के । है क्या हमारे पास,पर एक बात जरूर है । जिसके पास भगवान् है, उसी के पास सब कुछ है । भगवान है तो सब कुछ है । भगवान नहीं है तो कुछ भी नहीं है । सब रहते हुए व्यर्थ है । क्या कहा आद्य शंकराचार्य जी ने ‘अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्रधीतिस्तु निष्फला’ यदि आपने उस परमतत्त्वम् को नहीं जाना तो सारा शास्त्रध्ययन व्यर्थ है । क्यों भाई ? पकड़ में नहीं आयेगा, जानने-समझने में नहीं आयेगा । ‘विज्ञातेऽपि परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला’ यदि आपने उस परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है । क्यों भाई ? आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी ! सब मिला, भिन्न हुआ दिखाई देगा । आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी पढ़ने की । जब परमतत्त्वम् मिल ही जायेगा तो शास्त्र अध्ययन की क्या जरूरत ? ये सब जो सारा शास्त्र है, व्यर्थ है । नहीं मिला तो व्यर्थ ही है, पकड़ में नहीं आयेगा, समझ में नहीं आयेगा । और मिल गया तब भी व्यर्थ है, आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी । इसका मतबल शास्त्र व्यर्थ है ? नहीं, ये कभी नहीं कहा उन्होंने । फिर क्या है ? शास्त्र एक रिकार्ड है, बुक है । शास्त्र पाठ करने के लिए नहीं बना है । शास्त्र एक रिकार्ड बुक है । धर्म का रिकार्ड बुक है । यदि धर्म के विषय में कोई जानकारी प्राप्त करनी हो, कोई आवे और कहे की हम धर्म जना रहे हैं । ये उसका जाँच परख जो है उसी रिकार्ड से होगा कि जो जना रहा है वह सही है कि गलत है । इसलिए शास्त्रों की महत्ता है। वह एक रिकार्ड बुक है । रिकार्ड के लिये अभिलेख है । आगे क्या कहा --
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् । 
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञानस्तत्त्वमात्मनः ।। 
     फिर इसके पहले एक और श्लोक कहा जाय तब वह नहीं कहा है । आद्य शंकराचार्य जी अंत में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना किये ‘विवेक चूडामडी’ उसमें लिखा -- 

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः। 
 आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्तिर्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि।। 
      ब्रह्मा के एक दिन रात में, एक दिन ब्रह्मा का होता है चार अरब बत्तीस करोड़ बरस का । हम लोगों का जो बरस है वह ब्रह्मा जी का एक दिन 4,32,0000000 (चार अरब बत्तीस करोड़) बरस का होता है और रात भी चार अरब बत्तीस करोड़ बरस का होता है । यानी उनका चैबीस घण्टे दिन वाले से 30 दिन का महीना और बारह महीने का बरस । और सौ बरस उनकी आयु है । अब क्या कह रहे है आद्य शंकराचार्य जी शास्त्रों की व्याख्या करते हुए सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जाय । गौर कीजियेगा शास्त्रों का पाठ-पठन और व्याख्या करते हुए सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जाए, देवता लोगों का यज्ञ, जाप करते कराते हुए सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जाए सम्पूर्ण अच्छे-अच्छे सुकर्म करते हुए सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जाय सभी देवी देवता का पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, आशाराम वाला भजन-कीर्तन, सभी देवी-देवताओं का भजन-कीर्तन करते-करते हुए सौ ब्रह्माओं की आयु बीत जायेगी, तब भी जब तक आत्मा और परमात्मा के एकत्त्व का बोध नहीं होगा, मुक्ति प्राप्त हो नहीं सकती । करते रहिये आप लोग शास्त्र पाठ, सुनते रहिये शास्त्र व्याख्यान चाहे भागवत कथा हो, चाहे वेद कथा हो, चाहे उपनिषद् कथा हो, रामायण कथा हो, गीता कथा हो, बाइबिल कथा हो, चाहे र्कुआन शरीफ का कथा हो कहते रहिये, सौ ब्रह्माओं की आयु तक जप-तप करते रहिये, सौ ब्रह्माओं की आयु तक अच्छे-अच्छे कर्म-दान दक्षिणा इन भीखमंगाओं को देते जाइये--करते जाइये सौ ब्रह्माओं की आयु तक देवी-देवता लोगों की  भजन-कीर्तन-पूजा-पाठ लेकिन जब तक आत्मा और परमात्मा के एकत्त्व का बोध नहीं होगा न, मुक्ति नहीं मिल सकती, मुक्ति नहीं सिद्ध हो सकती । 
     जब तक आप अज्ञान में हैं, जब तक आपको परमेश्वर मिल नहीं सकता, तब तक आपकी वही स्थिति टटोलने वाली रहेगी शास्त्रों और शब्दों के जाल में भरमेंगे ऐसे लोगों के लिये क्या कहा शंकराचार्य जी ने --              
 ‘‘शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारमणम् ।
            अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञानस्तत्त्वमात्मनः ।।
शब्दजाल जो है जितने शास्त्र ग्रन्थ है चित्त को भटकाने के लिये एक महान वन के समान है । आप किसी बड़े सघन वन में घुस जाये रास्ता ही पता नहीं है कोई कुतुबनुमा (नक्शा) भी नहीं रखे हैं, कोई सुनिश्चित मार्ग भी पता नहीं है उस महान् वन में किधर जायेगें ? कोई गाइड लाइन नहीं किधर जायेंगे, किधर निकलेगें ? उसी में भरमते-भटकते रह जायेंगे उसी प्रकार से कहा आद्यशंकराचार्य जी ने ये शब्दजाल, ये सद्ग्रन्थ चित्त को भटकाने वाले हैं ।                 
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञानस्तत्त्वमात्मनः ।।
इसलिये हर प्रकार से प्रयत्न करके किसी तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिये । उस परमतत्त्वम् को प्राप्त कर लेना चाहिये । फिर कहा एक बात आगे --                   
अकृत्वा दृश्य विलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।’
यदि आप दृश्य का विलय किये बिना तत्त्वज्ञान प्राप्त भी कर लेगें तो कोई
लाभ नहीं मिलेगा । तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में दृश्य का विलय अनिवार्य है तभी तत्त्वज्ञान की उपलब्धि मिलेगी। उस दृश्य का विलय और तत्त्व का ज्ञान ये दोनों में से दोनों एक साथ होगा, मुक्ति और अमरता आप की सफल होगी यदि ये चाहें दृश्य भी मेरा रहे और तत्त्व भी मेरा हो जायें सम्भव नहीं है ये वैसे ही होगा जैसे--
                   
 न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
यही पंक्ति लागू होगी ये दुष्कृत्य में लगे हुये मूढ़जन नरों में अधम नीच है
नीच । ये दुष्कृत्य में लगे हुये नरों में अधम नीच है मेरे शरणागत नहीं रहते इसलिये ‘मायापहृतज्ञान आसुरं भावमाश्रितः’ माया ज्ञान को सीज करके आसुरी भाव में डाल देती है । जा असुरता का भोग भोग । असुरों की जो गति-दुर्गति होगी वही गति-दुर्गति में तु भी जा । 

      फिर आगे कहा शंकराचार्य जी ने-       
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
       ग्राहं दारूधिया धृत्वा नदी तर्तुं स इच्छति ।।     
     जो शरीर पोषण में लगे रह कर के आप उस तत्त्व को प्राप्त करना चाहे, शरीर पोषण में लगा रहकर हम नौकरी वाले रहेगें, हम बिजनेस-व्यापार वाले रहेगें, हम घर-परिवार वाले रहते हुये भगवान् के भक्ति-सेवामय रहेगें, तत्त्वमय रहेगें तो ये सब विचार भाव कैसे है ? ‘ग्राहं दारूधिया धृत्वा नदी तर्तुं स इच्छति’ यानी ग्राह को, मगरमच्छ को काठ समझ कर नदी पार करना । अरे ! आपके मान लेने से ग्राह काठ तो हो नहीं जायेगा, मगरमच्छ काठ तो हो नहीं जायेगा, जैसे आप उस पर बैठने जायेंगे तुरन्त आप को वह आहार बना लेगा । उसी तरह से तत्त्व को प्राप्त करके पुनः आप शरीर सम्बन्धियों में शरीर पोषण में रहना चाहते है तब तो माया रहने ही नहीं देगी, ज्ञान छीनकर के वापस कर देगी, आसुरी भाव में डाल देगी । आप का विनाश कोई रोक ही नहीं सकता ब्रह्माण्ड में क्योंकि उस समय आप भगवद् द्रोही के टाइटल में चले जायेगें । भगवान् का अपमान ये सब आप पर लागू होगा अब हमारा कहना है कि आप स्वतः निर्णय लीजिये की आपको जीव के जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि चाहिये, मुक्ति-अमरता चाहिये या जन्मत मरत दुःसह दुख होई बार-बार जन्मना और बार बार मरना ये चाहिये । ये तो निर्णय आपका है यदि आपको सारी जानकारियाँ प्राप्त होते हुये जीव का भी दर्शन, आत्मा-ईश्वर का भी दर्शन, इधर संसार का भी दर्शन सब जानते हुये यदि वास्तव में जो परमसत्य है, जो परमात्मा-परमेश्वर है वह चाहिये खुदा-गाॅड- भगवान चाहिये, मुक्ति-अमरता चाहिये तब तो भइया हमारे सम्बन्ध व्यवहार है । यदि ऐसा नहीं चाहिये तो भइया ! आप अपने जगह पर हम अपने जगह पर । हम परमेश्वर वाले हैं, परमेश्वर जिसको चाहिये उसको मिलाने वाले हैं । परमेश्वर के प्रति समर्पित-शरणागत होने वाले को धर्म-धर्मात्मा-धरती के
रक्षा में लगाने वाले हैं । परमेश्वर आया ही इसीलिए है जो कोई भी धर्म-धर्मात्मा- धरती के रक्षा में लगे, परमेश्वर पायेगा । एक विभाग में नौकरी मिलेगी किस लिये ? विभाग के अनुसार रहने-चलने-करने के लिए न ? तब न वहाँ तनख्वाह बनेगा । कोई डिग्री-डिप्लोमा मिल गई घर में बैठ जाइये तनख्वाह मिल जायेगा क्या ? ध्यान-ज्ञान लेकर घर में बैठेंगे तो ईश्वर-परमेश्वर आपको पेमेन्ट करने लगेगा क्या ? मुक्ति-अमरता ले जाकर घर में दे देगा क्या ? ऐसा भ्रम मत पालिये । परमेश्वर इतना बेवकूफ नहीं होता है । परम पवित्रतम् चीज को इस निन्दनीय घृणित झूठ में मिलाने के लिये, परम बन्दनीय ज्ञान और भगवान नहीं मिलता है। आप को झूठ, छल-कपट, चोरी, बेईमानी हर प्रकार से परमेश्वर वाले होगें तो छोड़ना ही पड़ेगा । यदि आप छोड़कर रह नहीं सकते तो परमेश्वर के शरण में रहिये वह आपकी सारी व्यवस्था देगा । आपके पीछे परिवार है - आश्रित हें एक विभाग आश्रितों की व्यवस्था देगा ? परमेश्वर नहीं देगा क्या ? 

      वह आधार आज ही बता दे रहा हूँ कौन छूटेगा कौन रहेगा। जो परमेश्वर का हो रह करके चलना चाहेगा, परमेश्वर के लक्ष्यभूत कार्य धर्म-धर्मात्मा-धरती के रक्षा में लगना-लगाना चाहेगा, परमेश्वर की प्राप्ति उसी को होगी जो अपने जीवन को धरती से असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति मिटाने में जीवन को आगे बढ़ायेगा जो अपने जीवन को परमेश्वर के माध्यम से परमेश्वर के शरण में रहते हुये परमेश्वर के आदेश-निर्देश में सीधे रहते हुये इस धर्म-न्याय-नीति को स्थापित करने-कराने में, परमेश्वर के साथ लगने-लगाने में तैयार होगा परमेश्वर की प्राप्ति केवल उसी के लिये है । भोग-राग में बने रहने वालों को परमेश्वर नहीं मिलता । भोग-व्यसन में झूठ-चोरी-बेईमानी में बने रहने वालों को परमेश्वर नहीं मिलेगा । जो अपने को जो कुछ बनता हो, जाँच करना चाहता हो भाग ले । लेकिन याद रखे परमेश्वर मिलने के बाद परमेश्वर का हो रह करके परमेश्वर के आदेश-निर्देश में रहते हुए धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा अथवा धरती से असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति को मिटाने और इस पर सत्य-धर्म-न्याय-नीति को पुनः लाना, स्थापित करना यही परमेश्वर का कार्य होता है । यदि इस कार्य में आप लोगों को सह भागीदार बनना है - परमेश्वर का भक्त-सेवक-सहभागीदार बनना है तो आप लोग बन सकते है। इसमें परमेश्वर आपको कीमत क्या देगा, तनख्वाह क्या देगा ? जीव को मोक्ष, जीवन को यश-कीर्ति, रोटी-कपड़ा-मकान- साधन-सम्मान ये तो परमेश्वर वालों के पीछे-पीछे रहती है फिरती-फिरती अपने मान-सम्मान के लिए । 
            हर प्रकार से झूठ-फरेब-छल-कपट-लूट-बेईमानी-ठगाई से रहित जो परलोक वाला जीवन, जो जीव-ईश्वर-परमेश्वर वाला है, उस प्रधान जीवन में आप को अपने जीवन को ले जाना होगा। लोक-परलोक दोनों जानने-देखने को मिलेगा । परलोक प्रधान अपने जीवन को ले जाना होगा ताकि हमारे जीवन में पुनः झूठ-कपट-छल-चोरी-बेईमानी-ठगाई-लूट-पाट न आ सके, जनमानस को हम अपनत्त्व बाँट सके । जनमानस को परमेश्वर के तरफ घुमाना होगा । तब नौकरी-चाकरी में नहीं रहने देगा परमेश्वर । यानी आपको मूसा अली इस्लाम बनायेगा, मोहम्मद साहब बनायेगा, विवेकानन्द जैसा महापुरुष-सत्पुरुष बनायेगा। देख लीजिये इन लोगों की नौकरी क्या थी -- भगवद् संदेश देना । कैसा संदेश - जिसमें रूह और सेल्फ की जानकारी भी नहीं है। नूर और सोल का दर्शन-दीदार तो है ही नहीं । गाॅड और अल्लाहतआला का दर्शन-दीदार भी नहीं है । और तो छोड़ दीजिये रूह की भी जानकारी भी बर्जित है । रूह की भी जानकारी नहीं कराया था इन लोगों ने रूह-सेल्फ की । यहाँ तो आपको जीव-रूह- सेल्फ का दर्शन-दीदार मिलेगा । आत्मा-ब्रह्म-ईश्वर-नूर-सोल स्पिरिट का भी दर्शन-दीदार मिलेगा और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान् का भी दर्शन सहित बात-चीत परिचय-पहचान करने को मिलेगा । क्या ये दर्शन अँचार डालने के लिए घर ले जायेंगे ? परमेश्वर को चाय बनवाने के लिए क्या ? जो परमेश्वर को पाता है न परमेश्वर के चरण-शरण में होने-रहने के साथ उसी के अनुसार रहन-सहन बस । अर्थ क्या है वही धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा । उसी में अपने को लगना-लगाना । कार्य क्या है ? धरती से असत्य-अधर्म-अनीति- अन्याय को मिटाना और सत्य-धर्म-न्याय-नीति को पुनः स्थापित करने के लिये लगना । अब महशूस कीजिये क्या इससे बढ़कर धरती पर कोई नौकरी-चाकरी है क्या ? स्वयं सोच लीजिये । सेनानी बन रहे हैं, सेना में युद्ध करने जा रहे हैं । देश की रक्षा में शरीर लग जा रही है । शहीद की टाइटिल सरकार दे रही है और धरती के रक्षा में लगे-लगायेंगे तो क्या कहलायेंगे ? धरती की रक्षा में लगे-लगायेंगे तो क्या कहलायेंगे ? धर्म की रक्षा में लगे-लगायेंगे तो क्या होंगे ? धर्म-धर्मात्मा-धरती के रक्षा में लगने-लगाने वाले की टाइटिल क्या होगी ? जरा सोच समझ लीजिये । उपाधि क्या होगी ? वही जटायू वाली, वानर-भालुओं वाला - यदि शरीर लग गई तो । आप लोगों को साक्षात् परमेश्वर के शरण में रहकर के उसके
आदेश-निर्देश में रहते हुये इस असत्य-अधर्म से ग्रसित, अन्याय-अनीति से ग्रसित धरती को पुनः मुक्त कराना है और पुनः इस पर सत्य-धर्म-न्याय-नीति को लाना ही लाना है । ये सत्य-धर्म का कार्यक्रम रूकने वाला नहीं है। धरती पर होता ही रहेगा तब तक, जब तक धरती पर से ये असत्य-अधर्म-अन्याय-अनीति वाले या तो सुधर-सम्भल जायें या तो नष्ट-विनष्ट होकर के यमराज के यहाँ जाकर के जो वहाँ भोग-भाग मिलना है वह लेंवे । धरती खाली करनी ही होगी इस असत्य-अधर्मियों को । चाहे प्रेम से कर लें, चाहे ज्ञान से कर लें अन्यथा प्रकृति तो लगी ही है । परमेश्वर भी लगा है । प्रकृति के साथ-साथ सफाई अभियान में परमेश्वर भी लगा है और ये होना ही है । मर्यादा इसमें है कि कौन जुड़ करके मुक्ति-अमरता यश-कीर्ति का पात्र बनता है और कौन मनमाना अलग रह करके अपकीर्ति, पतन-विनाश का पात्र बनता है ।
बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ ।


संत ज्ञानेश्वर
 स्वामी सदानन्द जी परमहंस