मनुष्य का पुरुषार्थ ‘धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष’

मनुष्य का पुरुषार्थ
‘धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष’
    शास्त्र जनित मनुष्य का पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-और मोक्ष है । हमारे-आपके जीवन के लिये दो क्षेत्र हैं जिसमें रहते हुये जीया जाता है । पहला संसार और शरीर के बीच अथवा कर्म और भोग वाला जीवन और दूसरा परमात्मा अथवा धर्म और मोक्ष वाला जीवन । दोनों क्षेत्रों का गुण-लक्षण, प्रभाव, गति, परिणाम और उपलब्धि, भिन्न-भिन्न हैं । कर्म और भोग के बीच के जीवन का रख-रखाव और मालिकान ‘माया’ के हाथ में है जिसका काम हमेशा जीव को नचाना-तड़पाना यानी दुःख-कष्ट देना होता है। माया किसी को भरा पूरा नहीं रख सकती । हाँ ! जीव की थैली में इतना कामना भर देती है कि जो करोड़ों-करोड़ों योनियों तक पूरित नहीं हो सकती, एक पूरित होती है तो दूसरी प्रकट होती है, दूसरी पूरित होती है तो तीसरी प्रकट हो जाती इस प्रकार से प्रकट-पूरित होती हुई चैरासी का चक्कर कटवाती रहती है। इसलिए माया चैरासी के चक्कर लगवाती है । कर्म और भोग वाला जीवन अन्तहीन कामनाओं से भरा-पूरा होता है । माया हमेशा कामना कोे आगे कर व्यवस्था को पीछे ढकेलती रहती है । इसलिए जहाँ एक तरफ पूर्ति के लिये व्यक्ति को अर्थ जुटाने में झूठ, बेइमानी, चोरी-छलावा आदि का ही सहारा लेकर सारा जीवन बेच देना पड़ता है। वहीं दूसरे तरफ ‘सत्य क्षेत्र- भगवद् क्षेत्र वाला जीवन पुरुषार्थ वाला जीवन होता है।  धर्म और मोक्ष के बीच के जीवन का रख-रखाव और मालिकान ‘परमेश्वर या खुदा-गाॅड-भगवान’ के हाथ में है जो दोष रहित सत्यप्रधान उन्मुक्तता और अमरता से युक्त सर्वोच्चता और सम्पूर्णता वाला होता है। जिसमेें कामनाओं के लिये प्रभावी होने के लिए कोई जगह ही नहीं रहती है । कामना आ भी जाये तो हर प्रकार से पूर्ति हेतु ‘अर्थ’ यानी धन-सम्पदा पहले से ही उपस्थित रहता हुआ दिखाई देता है । ऐसा इसलिये क्योंकि धर्म वाले जीवन का सर्वेसर्वा (कर्ता-भरता-हरता) स्वयं परमेश्वर है। अर्थात् परमेश्वर अपने भक्त-सेवकों को कामनाओं से रहित भरा-पूरा समृद्ध सम्पन्न और उनमुक्त-अमर जीवन वाला बनाता है क्योंकि जो कामनाओं से रहित उन्मुक्त रहेगा वही निःस्वार्थी, निष्कामी कहलायेगा और उसी से ही परमेश्वर का कार्य भक्ति-सेवा रूप ‘धर्म-धर्मात्मा-धरती’ की रक्षा का कार्य सम्पन्न हो सकता है। जिसने धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष के बीच अपने जीवन को रखा है उसी को पुरुषार्थी भी कहते हैं । 
संत ज्ञानेश्वरस्वामी सदानन्द जी परमहंस