संसार में क्या त्याज्य है और क्या ग्राह्य है ?

संसार में क्या त्याज्य है और
क्या ग्राह्य है ?
      बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ ! संसार दो विषय-वस्तुओं के मेल से बना है । त्याज्य और ग्राह्य । छोड़ने योग्य, हमें त्याग देना चाहिए, छोड़ देना चाहिए और क्या हमें ग्रहण करना चाहिए, अपनाना चाहिए । इन दोनों में हमारी पहली ड्यूटी बनती है आप सबको सुनाना-जनाना । दूसरी ड्यूटी बनती है, दूसरा कर्तव्य बनता है यदि आपमें जिज्ञासा प्रकट होती है, ऐसी उत्प्रेरणा आपको मिलती है, ऐसी भगवत् कृपा आप पर होती है तो दिखाना भी । दिखाना भी कि आप शरीर मात्र नहीं हंै। यही से तो झूठ का बीज आपके जीवन में पड़ गया । ‘हम’ शरीर-- ये इस संसार का सबसे पहला झूठ है । ‘हम’ शरीर है, शरीर का नाम ही हमारा नाम है, शरीर का कार्य-व्यवहार ही हमारा कार्य-व्यवहार है, यही से ‘हम’ शरीर ये झूठ का बीज हमारे आपके जीवन में पड़ा और जिसका बीज, उसका पौध, उसका वृक्ष, वही फूल, वही फल । जब झूठ का बीज होगा, पौध-वृक्ष क्या सच का हो जाएगा ? जब झूठ का बीज है, फूल-फल क्या सच का बनेगा ? हम सब यहीं विचलित हो गए, जीवन की दिशा यही बदल गई, उल्टी हो गई । ये शरीर मिली थी आप सबको, इस संसार को जानने-देखने के लिए, समझने-बूझने के लिए, इसका आनन्द लेने के लिए ।  इसको पकड़कर, जकड़ने के लिए नहीं । वहीं दिशा उलट गई । बार-बार हर ग्रन्थ ये कहता है कि ये नाशवान है, र्कुआन शरीफ कहता है ये फानी है, ये नाशवान् है । जो है हम सभी  ऐसे नाशवान् को जब अपनायेंगे तो उसके साथ-साथ हम भी नाशवान् हो जायेंगे । हम भी नाश को चले जायेंगे । इसलिए बहुत सावधानी की जरूरत है अपने को इस संसार में ले चलने के लिए । असत्य और सत्य, अज्ञान और ज्ञान, अधर्म और धर्म, अंधकार और प्रकाश, जड़ और चेतन, माया और भगवान् , भोग और मोक्ष, मृत्यु और अमरत्व। एक वर्ग जो है असत्य वाला ये त्याज्य है । एक वर्ग वाला, पहले वाला जो है असत्य, अज्ञान, अधर्म, अंधकार, माया, कर्म, भोग, मृत्यु ये त्याज्य है । ये त्याज्य हैं । इसी के जगह पर सत्य, ज्ञान, धर्म, प्रकाश, भगवान्, मोक्ष और अमरत्व ये ग्राह्य है । हमारा आपका जीवन दो भागों में विभाजित है । एक है लौकिक दूसरा है पारलौकिक । लौकिक में क्या है संसार और शरीर के बीच का जीवन शरीर तक । लौकिक में संसार और शरीर के बीच का जीवन, शरीर तक ये लौकिक । पारलौकिक क्या है जीव और परमेश्वर के बीच का जीवन । जीव और परमेश्वर के बीच का जीवन पारलौकिक। देखिए लौकिक शब्द दोनों तरफ है । लौकिक दोनों तरफ है । जिस तरफ इधर लौकिक है उसी तरह उधर भी लौकिक है । बीच में एक शब्द है पार जैसे नदी के आप इस पार  हैं । जब यहाँ खड़े हैं तो इस पार नहीं कहा जाएगा । यहाँ खड़े हैं तो उस पार । उस पार वाला हमको उस पार कहेगा, इस पार वाला उसको उस पार वाला कहेंगे । तो एक है लौकना, लौकिक शब्द किससे बना है -- लउकना । लउकना माने दिखाई देना । लौकिक, लउकने वाला, दिखाई देनेवाला । तो जैसे इस पार लौकने वाला है, दिखाई देने वाला है, वैसा ही उस पार भी लौकने वाला है, दिखाई देने वाला है । लौकिक, पारलौकिक । लौकिक, पारलौकिक । लौकिक इधर भी है और लौकिक उधर भी है, जिस प्रकार से शरीर- परिवार-संसार, इधर लौक रहा है, दिखलाई दे रहा है  ठीक ऐसे ही जीव, ब्रह्म-शक्ति, शिव-शक्ति और परमब्रह्म- भगवान्- परमेश्वर उस पार है । जिस प्रकार से तीन श्रेणियों में शरीर-परिवार-संसार इधर है । ठीक इसी प्रकार से तीन श्रेणियों में जीव, ईश्वरी सत्ता-शक्ति-आत्म सत्ता-शक्ति, ब्रह्म सत्ता-शक्ति, शिव-सत्ता-शक्ति यानी जिस प्रकार से इधर शरीर है उसी प्रकार से उधर जीव है । जिस प्रकार से इसके माता-पिता इधर हैं, उसी प्रकार से जीव के माता-पिता ब्रह्म-शक्ति, शिव-शक्ति, आत्म-शक्ति उधर हैं । जिस प्रकार से शरीर और परिवार संसार से आया है, परिवार के माध्यम से, इसकी सारी व्यवस्था पूर्ति संसार से होता है । ठीक इसी प्रकार से जीव आया है परमब्रह्म से, परमात्मा से, परमेश्वर से शिव-शक्ति के माध्यम से, ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से, आत्म-शक्ति के माध्यम से और जीव और शिव-शक्ति-ब्रह्म-शक्ति की सारी व्यवस्थायें परमब्रह्म-परमात्मा से होता है । जैसे इधर शरीर और परिवार की सारी व्यवस्था संसार से है ठीक वैसे ही जीव और शिव-शक्ति की, जीव और ब्रह्म-शक्ति की सारी व्यवस्थायें परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गाॅड-भगवान् से होता है । ठीक दोनों एक समान है । कोई अन्तर नहीं । अब अन्तर क्या है -- जैसे श्रेणीबद्धता जैसे इधर लौक रहा है, दिखलाई दे रहा है वैसे वह भी लौकने वाला है, दिखलाई देने वाला है । आप एकांगी हो गए । आप भूल गए, भूल गए कि जीव भी कोई चीज होती है । जीव भूलने का दुष्परिणाम ये हुआ कि वह पारलौकिक वाला जीवन आपसे दूर हो गया । पारलौकिक वाला जीवन जो है आपसे कट   गया । जबकि आपका असली जीवन वही था । ये तो नकली जीवन  है । ये सब आप सबका बिल्कुल नकली जीवन है, नकली । ये जीवन आपका झूठा है झूठा । बिल्कुल झूठा । ममता-मोह की जो पट्टी आप सबके आँख पर लगी है वह पट्टी देखने नहीं दे रही है । बिल्कुल जितना भी कह लीजिए, जितने भी कह लीजिए । ये इतना झूठ है, ये इतना निन्दनीय है, ये इतना घृणित है जितना बोला नहीं जा सकता । ये जिसको आप सब पकड़कर के बैठे हैं बड़े मशगूल हैं । ऐसा है नहीं । आप सब इतने बड़े भ्रम के शिकार हैं, आप सब इतने बड़े भूल के शिकार हैं,  कि आप यह भी भूल गए कि हम भ्रमित हैं कि सब ही एक ही रास्ते पर चल रहे हैं । जो आपका सच्चा जीवन था, उसको तो आपने पीछे करके छोड़ दिया । उसको तो पारलौकिक कहकर के छोड़ दिया। जो ये नकली, निन्दनीय, घृणित झूठा जो जीवन था, बिल्कुल झूठ अरे भइया ! रोज कहते रहेंगे  झूठ । जितनी बार कहा जा सके उतना ही बार कहते रहेंगे झूठ । आप सबकी मति उलट गई, मति ही उलट गई । सोचिए दो भाग हैं शरीर आई है संसार से माता-पिता के माध्यम से जिस प्रकार से ये स्थिति है ठीक यही स्थिति-- जीव आया है परमेश्वर सेे, परमब्रह्म से ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से । जीव माता-पिता से नहीं आया है, जीव संसार में नहीं होता है । जीव परमेश्वर के यहाँ से आया है, परमब्रह्म के यहाँ से आया है, परमात्मा से आया है ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से, आत्म सत्ता-शक्ति के माध्यम से, शिव-शक्ति के माध्यम से ।        अब सवाल है एक तरफ जीव, आत्मा, परमात्मा हो गया, जीव, ईश्वर, परमेश्वर हो गया । दूसरे तरफ शरीर, परिवार, संसार हो गया । एक भी ग्रन्थ दुनिया का सद्ग्रन्थ नहीं है जो कह दे कि इसे अपनाना चाहिए, ये सही है । एक नहीं मिलेगा। एक नहीं मिलेगा । आपको अपने अस्तित्त्व को अपनाना चाहिए था पारलौकिकता में । इस लौकिकता में रखते हुए, इस लौकिकता में रहते हुए भी अपने अस्तित्त्व को रखना चाहिए था पारलौकिकता में । क्योंकि जिस रेंज में आप रहते हैं जिस क्षेत्र में आप रहंेगे, उसी के लाभ से आप लाभान्वित होंगे । जब आप अपने जीवन को पारलौकिकता में रख देते और तब चल रहे होते तो इस झूठ-फरेब, चोरी-बेईमानी की आवश्यकता बिल्कुल ही नहीं पड़ती । पारलौकिकता की सारी व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी परमेश्वर के पास है । उसमें रहने वाला कोई झूठ-फरेब, चोर-बेईमान नहीं हो सकता । इसकी आवश्यकता ही नहीं । आप पापी-कुकर्मी नहीं हो सकते। आपकी सारी व्यवस्थायें सहजतापूर्वक प्रकृति के द्वारा होती रहती है । एक बात हम पूछे आप बन्धुजनों से । जरा गौर कीजिएगा । थोड़ा ध्यान देने की बात है, गौर कीजिएगा आप लोग । जो किसान इतना दयालु है, इतना दयावान है, कि घास-फूस को भी खाद-पानी देते रहता है, उसको भी सूखने जलने नहीं देता है। क्या उम्मीद किया जाय कि वह किसान अपना धान-गेहूँ-जौ-मटर-चना सूखने देगा ? उसको खाद-पानी नहीं देगा । क्यों ऐसा विश्वास किया जाए न ? जो किसान घास-फूस, खर-पात को भी सूखने-जलने नहीं दे रहा है उसको भी खाद-पानी दे रहा है उस किसान से भी क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है ? जो अपने धान-गेहूँ-जौ-मटर-चना को सूखने-जलने देगा ? आप लोग कुछ संकेत-इशारा करें ! ऐसी उम्मीद किया जा सकता है ऐसे किसान से ! जो मालिक, जो बाग-बगीचे वाला बबूल तक को खाद-पानी दिए बिना नहीं छोड़ता । बबूल को भी, कांट-कूस को भी खाद-पानी दे रहा है इतना दयालु है । तो क्या अपने आम-अमरूद-सेव-संतरा के बाग को सूखने देगा, जलने देगा ? ऐसा दयालु किसान जो कांट-कूस को, बबूल के पेड़ को भी खाद-पानी दे रहा हो, इतना दयालु हो, वह अपने आम-अमरूद-सेव-संतरा- अनार के बाग को सूखने देगा ? ऐसा दयालु परमेश्वर, ऐसा दयालु परमेश्वर प्रकृति जो कीड़े-मकोड़ों को, साँप-बिच्छू को, मछली-मेढ.क को आहार-विहार देने में लगा है, जो कीड़े-मकोड़ों को, मक्खी-मच्छर को, साँप-बिच्छू को आहार-विहार देने में लगा है क्या अपने इस सृष्टि के सर्वोत्तम प्राणी, इस सृष्टि के, ब्रह्माण्ड के सर्वोत्तम रचना मनुष्य को आहार-विहार नहीं देगा ? जो सृष्टि की सर्वोत्तम रचना मानव योनि है, जो साँप-बिच्छू को आहार-विहार देने में लगा है, जो कीड़े-मकोड़ों को आहार-विहार देने में लगा है, जो मछली और मेढक को आहार-विहार देने में लगा है, जो मक्खी-मच्छर को आहार-विहार देने में लगा है क्या अपने सर्वोत्तम रचना मनुष्य को आहार-विहार देने में बाज आएगा ? मनुष्य को आहार-विहार नहीं देगा । क्या है ईमान आप मनुष्यों का ? किसी सन्त ने कहा है--  
मो सम कौन कुटिल खल कामी,
जेहि तन दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमक हरामी ।
भरि-भरि उदर विषयन को ध्यावे, जैसे सूकर ग्रामी ।।
 
       बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ ! बन्धुजन ऐसा नहीं होना चाहिए । भूल गए आप सभी अपने जीवन के अस्तित्त्व को । भूल गए आप सभी अपने जीवन के कर्तव्य को । भूल बैठे, उलट गई मति। जीव भोगी-व्यसनी तो था ही । लाखों-करोड़ों जन्मों से भोग-व्यसन, भोग-व्यसन, आहार-निद्रा-भय-मैथुन, आहार-निद्रा-भय-मैथुन इसमें रमता-पचता हुआ एक नसेड़ी हो गया । जीव एक भोग-व्यसन का नशा छा गया । अब उस नशा में इतना धूत हो गया, नशा में इतना लीन हो गया कि उसका सोच-समझ ही उड़ गया। आप सभी उस नशे के शिकार हैं । यहाँ तक आप गृहस्थ जन जो हैं साधुजनों को कहते हैं ये सब धरती के भार हैं । कितनी उल्टी मति है । गृहस्थजन जो हैं चार पैसे के कमाने-धमाने में, नौकरी-चाकरी में लगे हैं, चार पैसा कमाने में लगे हैं तो थोड़ी पैसा हासिल कर लिए हैं तो क्या कहते हैं । ये साधु सब जो है धरती के भार है, धरती के । लो क्या मति हो गई ? धरती के भार तो स्वयं हैं । ये सारे गृहस्थ धरती के भार ही तो हैं । ये सारे गृहस्थ जो हैं परिवारिक जन चाहे वे खेती-बाड़ी वाले हों और चाहे नौकरी-चाकरी वाले हों या चाहे बिजनेस-व्यापार वाले हों, ये जितने गृहस्थ हैं धरती के भार ही तो हैं और ये तो उलटे साधुजनों को कह रहे हैं धरती के भार   हैं । क्या विचित्रता है भाई ? हम तो ऐसे विद्वान जी लोगों को खोजते रहते हैं कि थोड़ा हमको भी समझा देते कि वे धरती के भार हैं या साधुजन ? निःसन्देह जब जानने चलेंगे न तो पता चलेगा कि स्वयं जितने गृहस्थ हैं न, सब धरती के भार हैं चाहे वे खेती-बाड़ी वाले ही हों । देखिए न इतनी दुकानें हैं लखीमपुर में । ये किस चीज की दुकानें हैं ? ये किस चीज की दुकानें हैं ? हमको पूछिएगा तो कहना पड़ेगा झूठ की दुकानें हैं । झूठ की दुकानें हैं । चाहे जो कुछ भी खरीदिए, बेचा जाए, खरीदा जाए । बीच में झूठ सुनिश्चितापूर्वक स्थित-स्थापित है । ये पेट के धन्धे के लिए सौ-पचास झूठ रोज बोल रहे हैं । ये कितना भारी पाप-कुकर्म है । क्या सच बोलते, सब लोग संकल्पित होते, सच बोलते। एक दाम पर रहते तो क्या सामान नहीं बिकता ? तब भी बिकता । जिसको गर्ज है लेता ही । जब सब संकल्पित होते कि हम सच ही बोलेंगे । जब सब एक साथ, संगठन झूठ के लिए है, संघटन लड़ाई-झगड़ा के लिए है, संगठन आंदोलन के लिए है ये संघटन क्या सच के लिए नहीं हो सकता कि हम सभी दुकानदार सच बोलेंगे । एक बोलेंगे, उसी पर ठहरेंगे । लेने वाला ले नहीं तो जाए । जब इस दुकान पर भी वही रेट रहेगा उस दुकान पर, उस दुकान पर, सब दुकान पर यही रेट रहेगा । एकबार जब जानने वाला जान लेगा तो चाहे जो दुकान सामने मिलेगा उसी से ले लेगा। जो दुकान सामने मिलेगा उसी से सामान ले लेगा । असल में ये पेट का धन्धा, ये भोग-व्यसन का नशा, ये ममता-मोह की पट्टी झूठ को पाप-कुकर्म को समझने की बुद्धि ही नहीं दे रही है । ये कितना बड़ा भारी पाप-कुकर्म नित्य प्रति हो रहा है ये समझने की मति ही नहीं आ रही है ।
         बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय । तो केवल खण्डन वाले नहीं हैं । साथ-साथ मंडन वाले भी हैं । जब गृहस्थ बन्धुजनों को हमने कहा कि धरती के भार हैं । सब के सब चाहे खेती-बाड़ी वाले हों, चाहे बिजनेस-व्यापार वाले हो या नौकरी-चाकरी वाले हो । धरती के भार ही हैं । आप लोग बोलते थे साधुजनों   को । ये सब कुछ करते नहीं, घूमते-फिरते हैं आकर के खा लेते हैं । ठीक इसके उल्टा, ठीक इसके उल्टा हम लोगों को दिखाई दे रहा है कि सारे गृहस्थ धरती के भार हैं। सारे गृहस्थ धरती के भार हैं । अब हम लोगों में यदि विपरीत मति हो गई तो निर्णय होना चाहिए कि कौन सही है और सही को स्वीकार करना चाहिए । आप हम सभी में यदि किसी बात पर मतभेद हो तो निर्णय होना चाहिये क्योंकि असत्य त्याज्य है, सत्य ग्राह्य है । असत्य और सत्य दो मिलकर के संसार बना है । अज्ञानता त्याज्य है, ज्ञान ग्राह्य है । तो हम लोगों को ज्ञान से देखना चाहिए कि वास्तव में झूठ क्या है और सच क्या है ? सच जो हो उसे ग्रहण करना चाहिए और झूठ जो हो उसे त्याग देना चाहिए । लड़ने के लिए क्या बात-चीत है । अरे आपका भी वही लक्ष्य-उद्देश्य है, हमारा भी लक्ष्य-उद्देश्य वही है । आप सबका भी वही लक्ष्य-उद्देश्य है, झूठ को त्यागना चाहिए, सच को ग्रहण करना चाहिए। अज्ञान को त्यागना चाहिए, ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। अधर्म को त्यागना चाहिए, धर्म को ग्रहण करना चाहिए । अंधकार को त्यागना चाहिए, प्रकाश को ग्रहण करना चाहिए । माया को त्यागना चाहिए और भगवान् को ग्रहण करना चाहिए । भोग को, कर्म और भोग को त्यागना चाहिए, धर्म और मोक्ष को ग्रहण करना चाहिए। मृत्यु को त्यागना चाहिए, अमरत्त्व को ग्रहण करना चाहिए । तो अब हम आप लोगों में पहला ये देखना है कि असत्य और सत्य का ज्ञान हम लोगों को होना चाहिए कि असत्य क्या है और सत्य क्या है ? असत्य को छोड़ना चाहिए, सत्य को ग्रहण करना चाहिए । अब इसी में आ जाइए कौन धरती का भार है, गृहस्थ धरती के भार हैं या साधुजन ? इस बात को हम लोगों को जानना-समझना चाहिए ।
        अब सोचिए जीवन आप सब भी जी रहे हैं । जीवन गृहस्थ वर्ग भी जी रहा है, जीवन साधुजन भी जी रहे हैं । धर्मोपदेशक भी जी रहे हैं । आप सब भी भोजन ग्रहण करते हैं भोग्य सामग्री आप सब भी ग्रहण करते हैं, साधुजन भी भोजन ग्रहण करते हैं । वस्त्र आप सब भी पहनते हैं, साधुजन भी पहनते हैं । आप सब भी खाते-पीते हैं जीने के लिए, साधुजन भी खाते-पीते हैं जीने के लिए । ये दोनों तो सब समान है । अंतर क्या है ? आप सब जो जीवन जी रहे हैं खा-पीकर के वह फिर भोग-भोगे हैं उन्हीं भोग्य सामग्रियों को इकट्ठा करने में लगा दिए ।
        सत्य है तो सत्य को स्वीकार करना चाहिए । क्या है आपका जीवन भोगना और भोग्य सामग्री एकत्रित करना, आपका सारा जीवन भोग के लिए है । सारा जीवन भोगी-व्यसनी का, भोग का है, भोग का । धरती के भार नहीं तो और क्या  हैं ? जो सज्जन हैं, जो साधुजन हैं उनका जीवन अपने मंजिल के खोज में है । जो अज्ञानी साधुजन हैं उनका जीवन अपने मंजिल के खोज में है । वो जानते हैं जिस परमात्मा की सृष्टि है वो परमपुरुष और प्रकृति जब सबको जल में रहने वाले जलचर को, नभ में रहने वाले नभचर को, वन में रहने वाले वनचर को आहार-विहार दे रहा है तो हम उसको सर्वोत्तम प्राणी थलचर हैं , वह आहार-विहार क्यों नहीं देगा, देगा ही देगा । देगा ही देगा । अब रही चीजें वो तो अपने परमप्रभु के खोज में लगा है । अपने जीवन को, अपने मंजिल की खोज में लगा है । उसका जीवन तो सार्थक है । गृहस्थ का जीवन तो धरती पर भार है । उनको भोग ही भोगने से तृप्ति नहीं हो रही है । भोग ही भोग में अपने जीवन को बेच दिए। पहली को पाना, 30 तक खाना, तीसो दिन गुलामी बजाना । फिर पहली को पाना तीसो दिन गुलामी बजाना । ऐसे नौकरी वालों से तो किसान का बैल अच्छा है ।
 
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस