तत्त्वज्ञान -- परिपूर्णतम् ‘‘ज्ञान-विधान’’

तत्त्वज्ञान -- परिपूर्णतम्
‘‘ज्ञान-विधान’’
 

 साधु चरित शुभ चरित कपासू ।
निरस विशद गुनमय फल जासू ।।


        यह जो है सत्संग जो चल रहा है आपके बीच में, ये साधु चरित जैसे है, ये साधु चरित के विषय में है, साधु चरित कैसा होता है ? कपास जैसा -- नीरस । कोई रस आपको नहीं मिलेगा । जो कुछ भी किया जाएगा इसमें, कोई रस आपको नहीं मिलेगा । लेकिन ‘विशद गुनमय फल जासू’ इसमें जो है वृहद-विशद-बहुत ही बहुत विशालकाय आपको सद्गुण मिलेंगे, इसमें महत्ता मिलेंगे । जैसे कपास     है--- उसके सूत की तरह कष्ट झेल करके आपके हमारे सबके तन को ढकने का काम करता है । रुई फूट करके, पहले तो अपने आप फूट पड़ता है तब उसमें से रुई तैयार होता है । रुई को धुन करके उसको फ्रैश बनाया जाता है, उसको ताना-बुना-करके सूत बनाया जाता है ।
        बोलिये परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽऽ जय ! तो जिस प्रकार से नाना प्रकार के कष्ट झेल करके भी कपास सूता तैयार होता है । ठोक-ठाक करके कपड़ा बनता है, कपड़ा बनने के बाद कट-पिट करके और सिला-गुथा करके हमारा वस्त्र तैयार होता है । उसी तरह से वास्तव में सन्त-महात्मा, साधु पुरुष जो होते हैं नाना प्रकार से सामाजिक कष्ट-यातनाओं को आप ही के विरोधों का, आप ही के नाना प्रकार के लांछनों का, आप ही के नाना प्रकार के आरोपों का सबकुछ कष्ट सहन करने के बावजूद भी, उसका एक ही लक्ष्य है आप सभी का कल्याण । आप सभी जीवों का उद्धार । साधु पुरुष जो होता है--सज्जन पुरुष जो होता है, उसका एकमेव एक ही लक्ष्य है जीवों का उद्धार-- जीवों का कल्याण । अब इस उद्धार और कल्याण के बदले आप सब क्या देते हैं -- हँसी, विरोध, नाना प्रकार के लांछन, आरोप-प्रत्यारोप । ये तो आप सभी के अपने भाव-विचार हैं । लेकिन आपके समस्त इन सारे लांछनों-आरोपों और जो कुछ भी निन्दा-शिकायत करते हैं, इसकी परवाह किये बगैर जो साधु पुरुष होता है, जो सज्जन पुरुष होता है, जो ज्ञानदाता होता है उसका एक ही लक्ष्य है; वह क्या है ? जीव का उद्धार, जीव को मोक्ष और जीवन को यश-कीर्ति। एक ही लक्ष्य है । क्या आप कहते हैं, क्या आप करते हैं -- इससे कोई खास मतलब नहीं है। क्या आप को करना चाहिये, क्या आपको होना चाहिये-- हम उसमें भगवत् कृपा विशेष से कहाँ तक सहायता आपका कर सकते हैं, भगवान् के तरफ कहाँ तक आपको पहुँचा सकते हैं, भगवान् से मिलन में कहाँ तक हम आपकी सहायता कर-करा सकते हैं केवल इतना ही से मतलब है वह हम करें भगवत् कृपा विशेष से । इतना ही लक्ष्य है ।
         मेरे पास भगवत् कृपा से ज्ञान की प्राप्ति होती है । उस ज्ञान से मुझे सब कुछ जो जैसा है दिखलाई देता है । जड़ जगत भी दिखलाई देता है, शरीरों का रहस्य दिखलाई देता है । जीव क्या है ? जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहँ क्या है ? ये स्पष्टतः जानने-देखने को मिलता है । आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-सः ज्योति- शिवोऽहँ-सोऽहँ-हँ्सो ज्योति ये क्या है ? रहस्यों सहित यह दिखलाई देता है । परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान्-अकालपुरुष-अरिहन्त ये सब क्या है ? तीर्थं-तीर्थंकर ये क्या हैं ? आदि-आदि दिखलाई देता है । भगवत् कृपा और उस तत्त्वज्ञान की बलिहारी है । आप हम सबके बीच उसी ज्ञान को ले करके हम उपस्थित हुये । मेरे पास और कुछ नहीं है एक ज्ञान है ज्ञान । मेरे पास और कुछ नहीं है-- एक ज्ञान है । उसी ज्ञान को ले करके हम आपके बीच उपस्थित हुए हैं । वह ज्ञान क्या होता है - क्या है वह ज्ञान ? सत्यज्ञान कह लीजिये । क्योंकि बिल्कुल ही सत्यता पर आधारित है । हर अंश उसका सत्यता पर आधारित है । कहीं भी किसी भी अंश को जानने-देखने के पश्चात् आपको अंगुली उठाने का मौका नहीं मिलेगा कि इस अंश में जो है, यहाँ पर इसमें चाहे शंका है अथवा यह असत्य है । हर अंश में हर प्रकार से परिपूर्णतः यह जो है सत्य का विधान है । इसीलिये इस ज्ञान को कह दीजिये--पूर्ण ज्ञान कह दीजिये--परमज्ञान कहिए- तत्त्वज्ञान कहिये-- यह सब एक ही के संकेत और पर्याय हैं । ‘तत्त्वज्ञान’ वास्तव में इसका वास्तविक नाम है । हम जिस ज्ञान को आपको जनाने के लिये आये हैं वह वास्तव में तत्त्वज्ञान है तत्त्वज्ञान । तो आप सभी के बीच हम तत्त्वज्ञान को लेकर उपस्थित हुए हैं । तत्त्वज्ञान भी क्या है ? तत्त्व और ज्ञान दो शब्द हैं । ऐसा ज्ञान जिसमें तत्त्व की यथार्थतः जानकारी मिले । ऐसा ‘ज्ञान’ जो ‘तत्त्व’ को जनावे, ‘तत्त्व’ को दिखावे और आप-हम सबको ‘‘तत्त्वमय ही सम्पूर्ण जगत् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है-एकमेव तत्त्वमय ही है’’ -- इसका बोध करावे । इस ‘ज्ञान’ मात्र को लेकर के हम आपके बीच उपस्थित हुए हैं । उसी ‘तत्त्वज्ञान’ की विशेषता है --- उसी ‘तत्त्वज्ञान’ की देन है, जिस तत्त्वज्ञान के विषय में आप सभी के बीच चर्चा कर रहे हैं -- उस तत्त्वज्ञान की देन है, उस तत्त्वज्ञान का ही प्रभाव है कि जो कुछ भी आप यहाँ के पर्चे-पाम्पलेट्स में देख रहे होंगे, जो कुछ भी यहाँ का प्रचार-प्रसार देख रहे होंगे, जो कुछ भी इस शरीर के वाणी, बोल-चाल व्यवहार देख रहे होंगे-- यह सब उसी तत्त्वज्ञान की देन है जो भगवत् कृपा के रूप में प्राप्त है । उसी तत्त्वज्ञान की देन है जिसके बल पर-- जिसके भरोसे, जिसके माध्यम से आप सभी के बीच में चुनौतीपूर्ण उद्घोषणा की जा रही है । चुनौतीपूर्ण उद्घोषणाएँ दी जा रही है कि आपकी निश्चित समय के अन्तर्गत, आपको जो भी समय दिया जा रहा है, आज आषाढ़ 28 गते से, श्रावण 3 गते तक सत्संग कार्यक्रम, 4-5 गते को पात्रता-परीक्षण, दो दिन शास्त्रीय ज्ञान और अंतिम दिन 8-9-10 गते को -- 8 को जीव का दर्शन, 9 गते को आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का दर्शन और 10 गते को परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म का दर्शन निश्चित ही होगा । तत्त्वज्ञान के प्रभाव की बात की जा रही है । उसी तत्त्वज्ञान के बल पर ये बातें आपके सामने रखी जा रही है । तत्त्वज्ञान, जिस समय आप उसकी यथार्थता को जानना शुरू कर देंगे, जिस समय आप तत्त्वज्ञान से गुजरना शुरू कर देंगे, अपने आपमें हम आप पहले दिन ही उसकी महिमा यदि गाने लगे, उसकी यथार्थता को बताने लगे, उसकी सच्चाई को सुनाने लगे तो उसकी यथार्थता को बताने लगे, उसकी सच्चाई को सुनाने लगे तो आपके दिमाग में आपके दिल-दिमाग में अभी शायद मेरे समझ से वह कैपेसिटी, वह क्षमता नहीं है कि सहजतापूर्वक इसको ग्रहण-ग्रेस्प कर सकें । सीधे यह अतिशयोक्ति, अतिशयोक्ति भी नहीं, अति अतिशयोक्ति भी कह दिया जाए तब भी कोई हास्यास्पद नहीं होगा, ऐसा लगने लगेगा । इसलिये दो-तीन दिन सत्संग सुन लीजिए तब तत्त्वज्ञान की वास्तविक स्थिति का वर्णन आपके सामने रखा जाएगा । अभी तो उसके विषय में सिर्फ इतना ही बतलाऊँगा कि तत्त्वज्ञान इन सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों का सबसे कम्पीटेण्ट, सबसे सक्षम विधान है। सबसे परिपूर्णतम विधान है। तत्त्वज्ञान के माध्यम से आप परमाणु से परमेश्वर तक, आप एटम से आलमाइटी तक, आप अणु से अल्लाहतऽला तक, आप सेल से सुप्रीम तक, हर चीजों को यथार्थतः इस ब्रह्माण्ड में जो जहाँ, जैसा और जितने में है, आप मात्र यथार्थतः जानेंगे नहीं, आप मात्र यथार्थतः जान ही नहीं लेंगे, प्रत्यक्षतः देखेंगे भी । और मात्र जान-देख ही नहीं लेंगे जादू-मन्तर की तरह से-- उसे समझ-बूझ सहित, जाँच-परख सहित, सद्ग्रन्थों के प्रमाणों सहित आप हर प्रकार से उसकी अनुभूति और बोध जो कुछ भी उसमें है सहजतापूर्वक प्राप्त करेंगे ।
        तत्त्वज्ञान में कोई कर्म नहीं, कोई क्रिया नहीं, किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं, किसी प्रकार की कोई बाह्य विषय-वस्तुओं की आवश्यकता नहीं । यह एक प्रकार का परिपूर्णतम ‘‘ज्ञान-विधान’’ है -- सम्पूर्ण ‘‘ज्ञान-विधान’’ है। कुछ लोग इसका मनमाना अर्थ करना शुरू कर देते हैं -- खींचतान कर पंच तत्त्व-पंचतत्त्व । जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल है न, इसी पंच तत्त्व के विषय में कह रहा है इसी पंच तत्त्व के विषय में । लेकिन यह ज्ञान जो तत्त्वज्ञान है ये इस मात्र जड़ रूप जड़ पदार्थ के अन्तर्गत परिभाषा में आने वाला इस आकाश, वायु, अग्नि, जल, थल मात्र का ही नहीं है। यह तो इससे बहुत नीचे स्तर पर है । यह उस तत्त्व का ज्ञान है जो सृष्टि के पूर्व में भी था, जो इस सृष्टि के उत्पत्ति के पूर्व में भी था, जिसे इस सृष्टि के समाप्ति के पश्चात् भी रहना है । जो इस सृष्टि के पूर्व में था, जिसे सृष्टि के पश्चात् भी रहना है, हम उस ‘तत्त्वज्ञान’ की बात करते हैं । उस परमतत्त्वम् के विषय में जनाने की बात कर रहे हैं, दिखाने की बात कर रहे हैं।
       बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की जय ! उस तत्त्वज्ञान के विषय में जो कुछ भी आप सभी के बीच बोलेंगे, ये सात दिन जो कुछ भी सात दिनों में प्रैक्टिकल करायेंगे, सब कुछ भगवत् कृपा के अन्तर्गत ‘तत्त्वज्ञान’ के प्रभाव से है और कुछ नहीं । मेरे पास ‘तत्त्वज्ञान’ के सिवाय कुछ है ही नहीं -- कुछ भी नहीं है  लेकिन साथ-साथ एक और बात बता देना अनिवार्य लग रहा है कि ब्रह्माण्ड में तत्त्वज्ञान से हटकर कुछ है भी नहीं । मेरे पास ‘तत्त्वज्ञान’ से पृथक् कुछ नहीं है, एकमेव ‘तत्त्वज्ञान’ है लेकिन उस तत्त्वज्ञान की क्या विशेषता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ‘तत्त्वज्ञान’ से बाहर कुछ नहीं है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी उसी ‘तत्त्वज्ञान’ के अन्तर्गत ही है । तो इस प्रकार से आप सभी इस ‘तत्त्वज्ञान’ के विषय में, उसके सामने कुछ भी असम्भव नहीं । कुछ भी असम्भव नहीं । तत्त्वज्ञान एक ऐसा विधि-विधान है-- अब सोचे कि जिसमें परमाणु से परमेश्वर तक, परमेश्वर तक भी उसमें अपनी क्षमता-शक्ति सहित दिखलाई देता है । परमेश्वर तक भी उस ‘तत्त्वज्ञान’ के अन्तर्गत अपनी क्षमता-शक्ति सहित दिखलाई देने लगता है । इस संसार को कौन समझे । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दिखलाई देने लगते हैं । --सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड। फिर हम अब इससे आगे तत्त्वज्ञान की विशेषता क्या कहें । 
संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस