संसार की सारी चीजें दो प्रकार की (एकमात्र परमात्मा/तत्त्वज्ञान ही एक)

संसार की सारी चीजें दो प्रकार की
(एकमात्र परमात्मा/तत्त्वज्ञान ही एक)

       यह दुनिया है ! यहाँ हर चीजें दो प्रकार की हैं । कोई भी विषय-वस्तु नहीं है जो दो प्रकारों में न हो । भगवान् जो एकमात्र, जो एक होता है, वह भी दुनिया में आकर के दो प्रकारों में हो जाता है । भगवान् जो सदा-सर्वदा एकमेव एक होता है, वह भी जब दुनिया में आ जाता है, तो वह भी दो प्रकारों में हो जाता है । ये दुनिया ऐसी है । ये दुनिया ऐसी है कि हर चीजें दो प्रकारों में हैं । इसलिये तीसरी बार कह रहा हूँ कि भगवान् भी जो सदा-सर्वदा एकमेव एक ही रूप है वह भी दुनिया में आकर दो प्रकार हो जाता है । कोई सुनेगा कि भगवान् दो प्रकार का होता है । थोड़ी देर में आश्चर्य में पड़ जायेगा । ये भगवान् भी दो प्रकार का होता है । कोई सुनेगा तो आश्चर्य करेगा भगवान् भी दो प्रकार का होता है । हाँ, हाँ भाई भगवान् भी दो प्रकार का होता है । भगवान् भी दो प्रकार का होता है । कहेंगे कैसे ? बहुत सरल । जवाब तो मैं दे चुका  हूँ । बहुत सरल। क्या है भाई ? भगवान् निराकार भी होता है, साकार भी होता है, जब संसार में आता है । एक निराकार परमब्रह्म परमेश्वर जो सदा-सर्वदा निराकार रूप में, परमतत्त्वम् रूप में रहता है वही भगवान् जब दुनिया में आता है, संसार में आता है तो सगुण साकार भी उसका रूप हो जाता है । यानी निर्गुण निराकार और सगुण साकार । सगुण साकार और निर्गुण निराकार । दो रूप में भगवान् हो जाता  है; क्योंकि सगुण साकार के बगैर आप निर्गुण निराकार को जान ही नहीं सकते, देख ही नहीं सकते और निर्गुण निराकार के बगैर सगुण साकार का परिचय-पहचान हो ही नहीं सकता । सगुण साकार से निर्गुण निराकार का ज्ञान मिलता है और निर्गुण निराकार परमब्रह्म-परमेश्वर से सगुण साकार का परिचय-पहचान होता है । तो भगवान् भी साकार और निराकार, निराकार और साकार दो भागों में, दो रूपों में संसार में आकर दिखने लगता है, दिखाई देने लगता है ।
       ऐसे ही दुनिया में हर चीजें दो प्रकार की होती हैं। सत्संग भी दो प्रकार का होता है । दाल भी दो प्रकार की होती है । सब्जी भी दो प्रकार की होती है । चावल भी दो प्रकार का होता है। चाय भी दो प्रकार की होती है । काफी भी दो प्रकार की होती है। हर चीज दो प्रकार की है । पूछोगे कैसे ? आप देख लीजिये प्रयोग कर लीजिये बाजार में । आप किराना मर्चेंट के यहाँ जाइये, किराना दुकानदार के यहाँ जाइये, जहाँ राशन बिकता है। आप कहिये कि दाल हमें दे दो। पूछेगा कितना दे दूँ । आप कहिये भाई ! आधा किलो दे दो, एक किलो दे दो, पाँच किलो दे दो, दस किलो दे दो । यानी किलो से दाल माँगेंगे, वह किलो से दाल देगा । दूसरा आप होटल में चले जाइये । भइया मुझे दाल चाहिये । रोटी दीजिये, यह दीजिये । रोटी-चावल लीजिये तो दाल भी चाहिये । वह दाल प्लेट से लायेगा । वहाँ भी दाल ही माँगेंगे आप । किराना मर्चेंट के यहाँ दाल ही माँगेंगे । होटल में भी आप दाल ही माँगे । दोनों दाल में अन्तर है । किराना मर्चेंट वाली दाल जो है शुद्ध वास्तविक दाल है । सीधे प्रयोग आप नहीं कर सकते। किसी वास्तविक चीज का सीधे प्रयोग नहीं हो सकता । किसी भी शुद्ध वास्तविक चीज का सीधे प्रयोग, अब ये न कहेंगे कि अपवाद नहीं है । अपवाद भी इसमें है लेकिन सामान्य सिद्धान्त में सीधे किसी भी वास्तविक चीज का प्रयोग नहीं हो सकता ।
       अब कहेंगे दाल किराना मर्चेंट के यहाँ से ले रहे हैं । सीधे आप उसको नहीं खा सकते । वही दाल होटल वाला देता है । दाल में पानी मिलाया, हल्दी मिलायी, नमक मिलाया, खौलाया और नाना तरह का साधन जिसके पास जो मिलता है बना कर तो वह दाल प्रयोग में लाने वाला है । ये दाल जो है दाल है । पूछो चाय, आप जाइये दुकान पर यानी किराना दुकान में गये कि चाय दे दो तो कितना चाहिये पाँच ग्राम दे दो तो सौ ग्राम दे दो, दो-तीन सौ, पाँच सौ ग्राम । और वही चाय, चाय की दुकान पर गये ऐ भइया ! मुझे चाय चाहिये । तो चाय वहाँ भी माँगी गयी तो पत्ती दे देगा, असली चाय है सीधे फांक नहीं सकते । सीधे आप प्रयोग नहीं कर सकते । वही चाय दुकान पर चाहिये तो चाय भी रहेगी, पानी भी रहेगा, दूध भी रहेगा। यदि आपका साधन और है तो काली मिर्च, लौंग, इलाइची, अदरक वह भी डालेगा । चाय दोनों है । चाय किराना मर्चेंट दुकान से लाया वह भी चाय, चाय की दुकान से लाया वह भी चाय, नाम दोनों का चाय है । आप सब्जी वाला के यहाँ जाइये । अरे भाई ! ये सब्जी मिलेगी न । कौन सब्जी तो आलू की सब्जी, आलू दे दो। आलू तौलकर के देगा । वही सब्जी होटल जाओ सब्जी दे दो, पूछेगा कि किस चीज की सब्जी दे दूँ । कहा न सब्जी दे दो । वही आलू देगा यहाँ केवल आलू देगा तो हम सीधे प्रयोग नहीं कर सकते और वहाँ आलू में मिर्च, मसाला, तेल वह सब मिलाकर देगा तो वह आलू की सब्जी है  ।
         उसी तरह से सत्संग भी दो तरह का है । सत्संग का दो शब्द है सत् और संग । सत् संग यानी सत्य के संग होना-रहना-चलना वास्तविक सत्संग है। सत्य के साथ होना-रहना-चलना, वास्तव में वास्तविक सत्संग है। लेकिन सवाल है सत्य मिलेगा कहाँ ? मिलेगा कैसे ? पहले सत्य मिले, पहले सत्य दिखे, तब न हम उसके संग होंगे- रहेंगे। तो पहले सत्य का मिलना, सत्य का देखना, ये जब हो लेगा तब न सत्य के संग रहना होगा। ये तो होता है सत्य का मिलना, सत्य को जानना, सत्य को देखना तत्पश्चात् होता है सत्य के साथ होना-रहना-चलना । बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ ।
        परमप्रभु परमेश्वर की जयऽऽऽ । परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ । तो सत्य का मिलना, सत्य को जानना । सत्य का मिलना और सत्य का जानना, ये काम जो कराता हो, जिस विधान से होता हो जिससे परमात्मा-परमेश्वर जानने को मिले, देखने को . .  . . जानने को खासकर के तो मिलना और जानने को मिलना ये काम सत्संग करता है । इसको भी सत्संग कहा जाने लगा । जैसे इस समय, इस समय जो परमेश्वर होता है, परमात्मा होता है, परमब्रह्म-खुदा-गाॅड-भगवान् होता है उसके मिलने से संबंधित, उसको जानने से संबंधित, उसको देखने-पाने से संबंधित ये सारे वर्णन जो हो रहे हैं यह भी सत्संग कहलाता है । इसके बगैर आप परमेश्वर कैसे जानें-पहचानेंगे ? सत्संग यानी कई विद्वान् लोग आते हैं। हम बहुत पढ़े-लिखें हैं । हम सारे ग्रन्थ पढ़ते हैं । हमने बहुत गुरुओं का सत्संग सुना है । मैं तत्त्वज्ञान जानता हूँ । आपका बड़ा अच्छा लग रहा है । थोड़ा हम को भी तत्त्वज्ञान मिलाइये न। विद्वान् जी हैं । मूढ़ कहा जाय तो उनको गाली पड़ेगी । मैं भी तत्त्वज्ञान जानता हूँ, मैं भी तत्त्वज्ञान जानता हूँ, मैं पढ़ा लिखा हूँ, मैं सब जान चुका हूँ। मैं पढ़ा-लिखा हूँ । मैंने बहुत गुरुओं का सुना है । मैं भी तत्त्वज्ञान जानता हूँ। आपका सत्संग मुझे बड़ा जँचा है, बहुत अच्छा लगा है । इसलिये मैं सोच रहा हूँ कि मैं आपसे भी तत्त्वज्ञान पा जाता। मैं मूढ़ कहूँ तो यही कहा जायेगा कि विद्वान् जी हैं मूढ़ कहने पर तकलीफ होगा । जब आप ग्रन्थ पढ़े ही हैं, गुरुओं की बात सुने ही जाने हो, तत्त्वज्ञान पाये ही हो, तत्त्वज्ञान जानते ही हो, तो मेरे पास क्या माँग रहे हो ? मेरे पास तो तत्त्वज्ञान से हटकर कोई चीज ही नहीं है । मेरे पास न कुछ था, न कुछ है । भगवत् कृपा विशेष से साढ़े तीन हाथ का पुतला है और भगवत् कृपा विशेष से तत्त्वज्ञान रूपी भगवद्ज्ञान है और तो कुछ मेरे पास है ही नहीं । तत्त्वज्ञान आप जानते ही हैं । तो यहाँ का सत्संग आपको बहुत अच्छा लगा और आपको यह तत्त्वज्ञान भी चाहिये । ये जो अन्तिम दिनों में महसूस हुआ जो अच्छा लगना, तत्त्वज्ञान की चाहत बनना, यही जाहिर करता है कि आप तत्त्वज्ञान वाले नहीं हो । यही जाहिर करता है कि तत्त्वज्ञान दो-चार होता ही नहीं। इसलिये आप भी कन्फ्यूजन में मत पडि़ये । आप भ्रम का शिकार मत बनिये । परमेश्वर जो कुछ करता है, अपने भक्त-सेवकों के कल्याण के लिये करता है । परमेश्वर कभी अपने भक्त-सेवक का अवहेलना नहीं करता, उसको अपनमानित नहीं करना चाहता । उसको पतन-विनाश को नहीं जाने देना चाहता । परमेश्वर अपने भक्त-सेवक का सदा ही कल्याण चाहता है, कल्याण चाहता है । सुधार और उसके जीव का उद्धार चाहता है । परमेश्वर आपको खुश करने के लिये नहीं बोलेगा । परमेश्वर आपके कल्याण के लिये बोलेगा, व्यवहार करेगा । आप परमेश्वर से खुश रहें । ये परमेश्वर का पहला नम्बर नहीं है । आप कल्याण में बने रहें, आपका कल्याण हो, परमेश्वर का यह पहला नम्बर है । ये पहली जिम्मेदारी है कि आपका कल्याण हो। आपका उद्धार हो । परमेश्वर का पहला विधान ये है । अपने भक्त-सेवक के रुचि के अनुसार परमेश्वर नहीं चलता। अपने भक्त-सेवक के रुचि के अनुसार, अपने चेला जी के रुचि के अनुसार परमेश्वर नहीं चलता । परमेश्वर अपने भक्त के कल्याण के लिये रहता चलता है । जिसमें उसका कल्याण हो, जैसे भी उसका कल्याण हो । परमेश्वर इसी उद्देश्य को लेकर के अपने भक्त-सेवक से व्यवहार करता है। बोलो परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ । परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ । परमप्रभु परमेश्वर की जय ऽऽऽ ।

                  संत ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस